आइने की बात/प्रतियोगिता
विधा/कविता
खुद से संवाद
आईना भी पूछता है कैसे खुश रहते हो तुम ।
और सबकी बात कड़वी किस तरह सहते हो तुम ।।
आंँसुओं को आंँख से कैसे भला हो रोकते ।
गलतियां पर क्यों नहीं अपनों को हो तुम टोकते।
बंधनों की बेडियो में बंध तुम रहते सदा ।
औरों को आजाद लगती है तुम्हारी ये अदा।।
व्यर्थ को भी सार्थक कैसे बना लेते हो तुम ।
दर्द को सहकर भी इतना मुस्कुरा देते हो तुम।।
सिद्ध अपने को किया है आईने से श्रेष्ठ कर।
आईना उल्टी छवि से छल रहा है उम्र भर।।
कितनी आसानी से दुर्जन को भी कर देते क्षमा।
धैर्य से ही श्रृष्टि कायम और अंबर है थमा।।
रामकुमारी मेरठ ✍️