भीगती दुआएँ और सूखे इरादे
भीगती हैं दुआएँ हर रोज़ बेआवाज़,
माँ की आँखों से गिरती एक चुप सी आस।
वो मंदिर-मस्जिद में हाथ उठाते हैं सब,
पर दिलों में छुपा फिर भी संदेह का अल्पविराम।
सूखे हैं इरादे, जो कभी सागर जैसे थे,
आज स्वार्थ की धूप में दरारों से भरे हैं।
वो जो कहते थे — “बदलेंगे ज़माना”,
आज खुद बदल गए, वक़्त के बहाने।
भीख में मिली रोटी से पेट नहीं भरता,
पर इंसानियत की मुस्कान बहुत कुछ कहती है।
बच्चा जो फुटपाथ पे पढ़ता है दीये की रोशनी में,
क्या उसके सपनों में कोई हिस्सा हमारा नहीं?
हमने चौराहों पर ईश्वर बेच दिए,
और आत्मा गिरवी रख दी—सोने की आभा के लिए।
हर दुआ तोगुज़रती है आसमान से,
पर इरादे… ज़मीन से ऊपर उठने से डरते हैं।
कितनी ही माएँ अपने आँचल में सुकून छुपा कर,
बेटों को जंग के मैदानों में भेज देती हैं।
और हम… व्हाट्सएप पे शांति के फूल भेज कर,
फिर अगली पोस्ट पर नफ़रत उगलते हैं।
भीगती दुआओं का असर होता है गहरा,
पर सूखे इरादों की ज़मीन दरक जाती है।
अगर हर हाथ, किसी और का सहारा बन जाए,
तो न मंदिर गिरेंगे, न मज़ार टूटेंगे।
“आओ, दुआओं को सिर्फ़ भीगने न दें,
इरादों को सींचें इंसानियत के जल से।
शब्दों की नहीं, कर्मों की ज़रूरत है अब —
क्योंकि समाज बदलते हैं… भीगे हाथों से नहीं,
बल्कि तर इरादों से।”
लेखक: ऋषभ तिवारी
लेखन शीर्षक: “लफ़्ज़ के दो शब्द”