अजनबी अपने ही घर में
*अजनबी अपने ही घर में* गरीब लड़का याद आता है,
उसकी किस्मत में ये शब्द बचपन से लिख जाता है।
उसके पैदा होते ही बहुत सी आशाएं लाद दी जाती हैं,
कभी डाक्टर तो कभी इंजीनियर बना दिया जाता है।
समाज की सोच कैसी है ये सोच के मुझे दुख होता है,
छोटी सी उम्र में उसे भारी बस्ता लदा दिया जाता है।
थोड़ा बड़ा होने पर उससे बचपन छीन लिया जाता है,
बचपन में ही उसे एक बालक का बता दिया जाता है।
अपना अपना राग अलापते हैं हमेशा ही ये घर वाले,
उसके सपने क्या हैं ये हमेशा ही भुला दिया जाता है।
बालकावस्था में जब थोड़ा सा पंखों को खोलता है तो,
उसके सामने हिदायतों का भंडार लगा दिया जाता है।
एक उम्र आती है जब किसी संगति का असर होता है,
तो फिर संगति कुसंगति का पाठ पढ़ा दिया जाता है।
जब एक दोस्त की खोज में निकलता है वो बालक,
तो उसके सामने उसकी औकात बता दिया जाता है।
किसी भी तरह इस तकलीफ को सह भी ले वो तो,
उसे बार बार ही मुफलिस करार दे दिया जाता है।
कभी जो भूल से प्यार की राहों में वो भटक जाए तो,
उसे हमेशा ग़म ए जुदाई का सिला दिया जाता है।
तुम्हे बताऊं मेरी कलम यूं ही चलती रहेगी हमेशा,
मेरे द्वारा हमेशा मुझे आईना दिखा दिया जाता है।
तुम्हारी औकात क्या है ये इल्म रहे हमेशा *मयंक*,
वरना ये दुनिया है यहां सब कुछ बता दिया जाता है।
बहुत अच्छा लिखे हो मयंक, बस थोड़ा व्याकरण की अशुधियों पर ध्यान दो, निरंतरता तुम्हारे लेखन को नई ऊँचाईयाँ देगी ☺️
आगे प्रयास रहेगा भैया अच्छा से अच्छा लिखने का।