*अज़नबी अपने ही घर में*~
कभी किसी मुकाम पर हम अज़नबी अपने ही घर मे बन जाते है ,
कुछ रिश्ते बहुत पास होकर भी दूर होने का अहसास कराते है ,
चलती रहती है ज़िंदगी हमारी इनके एहसान तले ,
चाह कर भी हम ऐसे बंधनो से कभी नही छूट पाते है ।
बचपन में सब ‘पराई हो’ ‘तुम्हे तो जाना है’ कहकर दूरी बनाते है ,
क्या कीमत देना होती है एक लड़की होने की ये मतलब सिखाते है ,
जब चुप्पी लगाओ होंठो पर तो शर्म आने लगी समझ लेते है ,
जाना है तुम्हें तो एक दिन पिया के घर ये ताना सुनाते है ।
आसान नही ये किरदार न जाने कितने इसके पहरेदार ,
दिल मे उठता है कई दफ़ा ये सवाल ले लेती है तन्हाई भी आकार ,
घर मेरा है , माता – पिता भाई – बहन सब मेरे मेरा ही है परिवार ,
क्यों महसूस होने लगा मुझे अजनबी सा छूटने लगा मेरा संसार ।
बचपन मेरा बीता जिस घर में क्यों वो अनजान हो गया ,
खेला कूदा मैंने जहाँ गली , मोहल्ला , नुक्कड़ अब अरमान हो गया ,
माँ का आँगन , मां की रसोई , हर एक कमरा जहाँ रातें सोई ,
क्यूँ लगा ऐसा मुझे ऐसा यहाँ कुछ दिनों में ही मेहमान हो गया ।
पता नही कैसे और कब हम अजनबी अपने ही घर में बन जाते है ,
बंधे हुए हम समाज के रीतिरिवाजों से बेड़ियाँ कहां तोड़ पाते है ,
उठती हे जब डोली तब खुद के घर ही मेहमान कहलाते है ,
समाजिक बंधनो के चलते किसी और घर को अपना बनाते है ।
एक अनजान सा शहर अनजाने लोग अनजानी जगह ,
ऐसे ही ज़िंदगी में चलते – चलते बनती है दूरियां मिटाने की वजह ,
कुछ भी न जानते हुए भी गले लगाते है उस शख्स को ,
उसी से जन्मों – जन्मों के बंधन में बंधकर साथ निभाते है ।
®©Parul yadav
क्वालीफायर राउंड
बोलती कलम
अल्फ़ाज़ -e- सुकून
लड़कियों के मन की उद्विनता और भावों को बखूबी व्यक्त किया है आपने, बहुत सुंदर कृति 👌🏻
जी बहुत बहुत शुक्रिया मुकुल जी 🙏
जी बहुत आभार आपका मुकुल जी 🙏🙏