विषय – अजनबी अपने ही घर में
जाने कहाँ गए वो दिन , जब मकान नही घर होते थे,
दिलों में प्रेम था , दिन एक दूसरे के दिल में बसर होते थे,
परिवार के सहारे , लोग अपने हर मुकाम तक आ जाते थे,
पाकर सहारा एकदूजे का ,हर मंजिल को पा जाते थे,
जबसे घर की जगह , बंगले और फ्लैट होने लगे हैं,
लोग औरों के गम में हँसने ,और ख़ुशी में रोने लगे हैं,
कहने को सब अपने हैं, मगर फिर भी बेगाने हैं,
तन पे अपने धारे सभी ने, मिथ्या आधुनिकता के बाने है,
तकनीक के सहारे बैठे हैं सब , बन अजनबी अपने ही घर में,
इंसानी भावनाएं गुम गई , इस तकनीक के शहर में,
इंसानी भावनाएं अब तकनीक की मोहताज हो गई,
इमोजी हँस दिया , और चेहरे की हँसी खो गई,
दर्द में किसी के , अब कोई आँसू नही बहाता,
रोती हुई इमोजी से , अपना वो फ़र्ज़ है निभाता,
दिल भी कहाँ अब लोगो के , सीने में धड़कता है,
बस एक स्पर्श तकनीक का, हर भाव प्रकट करता है,
भावनाएं भी आहत होकर ,अब मानव को छोड़ गई,
मुठ्ठी में बंद दुनिया है , जो इंसानियत को तोड़ गई ,
हर रिश्ता , जब महज़ तकनीक से निभाया जाएगा ,
भावनाएं इमोजी में है, तो चेहरे पर भाव कैसे आएगा,
खून के रिश्ते भी अब , एक दूजे से अंजान बने बैठे हैं,
अपने ही घर में अजनबी और मेहमान बने बैठे हैं,
सारे रिश्तें और नाते मानो ,सीने पर पहाड़ हो गए,
एकल परिवार हुए ,और माँ बाप कँटीले झाड़ हो गए ।।
-पूनम आत्रेय
क्वालीफायर राउंड
बोलती कलम
अल्फ़ाज़-ए-सुकून