प्रतियोगिता : बोलती क़लम
विषय : अजनबी अपने ही घर में
हम अजनबी अपने ही घर में हो गये,
बा-ख्याल इश्क़ में यूँ बर्बाद हो गये…
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कमरे की दीवारों-दर चीखते रह गये,
ख़्वाब ख़ाक हुये, हम देखते रह गये…
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उनसे क्या कहे, सोचते ही रह गये,
कुछ घाव फिर यूँ, नासूर ही रह गये….
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वो पलटा ना, हम देखते ही रह गये,
उदासियाँ यूं रही,हम गुमनाम हो गये…
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इश्क़-ए मलाल इस हद तक रह गया,
पहले आशिक़ फिर काफ़िर हो गये…
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दर्द कह ना पाये, बस लिखते रह गये,
शब्द मरहम बने,हम शब्दकोष हो गये…
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इत्मीनान से इश्क़-ए इबादत करते रहे,
वो समझे नहीं, हम ज़र ज़र हो गये….
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कहानी मेरी अधूरी रही और यूं रह गयी,
हम तमाशाही हो , नक़ाबपोश हो गये…
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मिल्कियत यादें, हिज्र सबब बन गयी,
ख़लिश यूं मिली, बस आहते रह गयी…
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इश्क़ मर्ज , लिखना मरहम बन गया,
दोस्त बना रहबर,हम आबाद हो गये…
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इश्क़ ए दस्तूर अब बदल गया है यारों,
रूहानी इश्क़ नहीं, अब हबस है यारों…
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‘ कबीर ‘ अब जाँ हल्क में अटकी है,
उन्हें तो जाना था, वो बस चले गये हैं…
~Kabir pankaj