अजनबी अपने ही घर में

अजनबी अपने ही घर में बने बैठे हैं सब
फुर्सत नहीं कि अपनों का हाल तक जाने
जिसने पाला पोसा अपनी जिंदगी वार दी
उसी को अपने घर में अजनबी हैं वो माने

साथ बैठ दो पल बिताने की फुर्सत नहीं
पैसे को ही अब सबसे बड़ा रिश्ता हैं माने
अजनबी हुए जब खुद को ही भूल गए
वो अजनबी क्या अपने घर को पहचाने

घर की दीवारें भी अब बेजान सी लगती हैं
यहां प्यार नहीं बस दिखावा ही दिखता हैं
रिश्तों की डोर भी अब कमजोर सी हो गई
जब इंसान खुद के घर अजनबी बन बैठा हैं

दिखावे को मनाते खुशियां बांटते मिठाई हैं
बाप हैं भूखा सोया करते खुद की बढ़ाई हैं
रसोई घर का शोर ना सुनाई इनको देता है
सत्य हैं अजनबी अपने ही घर में बन बैठा हैं

बच्चों की खिलखिलाहट अब नज़र नहीं आती
दिखता घर खंडहर बस कुत्तों की आवाज आती
अजनबी अपने ही घर में जब से ये हुए शिवोम
इनको मखमल के गद्दों पे भी नींद कहा है आती

समय दो रिश्तों को पहचानो उनका तुम मोल
घर को बना लो घर कही हो न जाए बहुत देर
साथ बैठ खेलों खाओ समझो जिंदगी का खेल
घर ही हैं स्वर्ग यहां व्यर्थ हैं धन अहंकार लोभ

✍️ ✍️ शिवोम उपाध्याय

प्रतियोगिता – बोलती कलम
क्वालीफायर राउंड
विषय – अजनबी अपने ही घर में

अल्फ़ाज़ ए सुकून

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