आईने ने पूछा —
“तू अब भी सवालों में डूबी रहती है?”
मैं मुस्काई —
“हाँ, मैं अब भी अपने ही मन से जिरह
करती हूँ… चुपचाप, गहराइयों में।”
कहा उसने —
“थकती नहीं तू? हर उत्तर में एक
और प्रश्न उग आता है!”
मैं बोली —
“उत्तर नहीं थकाते… मुझे तो
खामोशियाँ डराती हैं सबसे ज़्यादा।”
कभी मेरे होंठों पर ऋचाएँ थीं —
अब भी कुछ शेष है,
मेरे अंतर में अब भी
चेतना की अग्नि विशेष है।
मैं गार्गी हूँ —
सिर्फ नाम नहीं, चेतना की एक पुकार हूँ,
हर आईने में अपनी ही परछाईं से
पूछती एक नया सवाल हूँ।
तू जो दिखाता है —
वो सिर्फ देह का दर्पण है,
मेरे भीतर जो उजाला है —
वो आत्मा का वर्णन है।
बोल दे दुनिया से —
मैं रुकी नहीं, थकी नहीं,
हर युग में अपनी सोच से टकराई,
मगर कभी झुकी नहीं।
मैं खुद से मिली हूँ बार-बार —
कभी चुप्पी में, कभी चिंगारी में,
और आईना हर बार साक्षी बना,
मेरी आत्मा की सतत तैयारी में।
आज भी वो आईना मेरे सामने खड़ा है —
ना सिर्फ चेहरा, मेरी जिज्ञासा का चेहरा पढ़ा है।
उसके सामने मैं बार-बार टूटकर भी खड़ी रही,
क्योंकि आईना कभी झूठ नहीं बोलता…
बस सचों से डरता नहीं।