गरीब

कट रही है ज़िन्दगी सफ़र में,
दुनिया के रंगों को देखता हूँ मैं।
ख़ुशबू अलग-अलग है हर चमन की,
बस ग़रीबों को पिसता देख रहा हूँ मैं।

सड़क हो या महल की दीवारें,
मुफ़लिसी की सदा हर सिम्त पुकारे।
ना रोटी मुक़द्दर में, ना सुकून कोई,
हर कोना जैसे ज़ुल्मों का अफ़साना उभारे।

बचपन खेल के बदले बोझ उठाए,
माँ की ममता भी आँसुओं में समाए।
जहाँ अमीरों की इबादत महलों में होती है,
वहीं भूख में सजदे करता फकीर नज़र आए।

हाकिम बदलते हैं, हुक्म वही रहते हैं,
वायदों की सियासत में सपने मरते हैं।
हर मुल्क, हर ज़बान, दर्द एक सा है,
मज़लूमों की तहरीर में रब का लिखा सा है।

मैं ‘नियाज़’, हर ग़रीब की आह सुनता हूँ,
शेरों में उनके दर्द को कहता और बुनता हूँ।
दौलत नहीं, बस नीयत हो साफ़ दिलों में,
इंसाफ़ तब ही आएगा इन फ़िज़ाओं में।

– ‘Niaz’

The Author

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *