अपनी डफली, अपना राग,
अपना ही सबका बजता साज।
देख के सब अपनों को लगता,
अपनी भी परिवार है खुशहाल।
पर झूठी निकली सारी बात,
किसे कहें और किसे बताएं।
ये सब तो है एक नकली ढाल,
जहां नहीं कोई अपना पर करते अपनी बात।
अपने ही घर में अजनबी से हम,
किसे कहें हम अपना,
किससे किसका कैसा नाता,
कैसे रहता है बेबाकीपन से ये मन।
हर चेहरा पहने है कोई मुखौटा,
हर हँसी में छुपा है एक धोखा।
सुनते सब हैं, पर समझता कोई नहीं,
अपनेपन की चाह अब तो रही ही नहीं।
हर दीवार गवाह है चुप्पियों की,
हर कोना अब खाली सी लगती ज़िंदगी की।
खुद से ही अब बातें करते हैं हम,
कभी आँसू, कभी खामोशी से भरते हैं दम।
अपनी पहचान ढूँढ़ते फिरते हैं हर रोज़,
जैसे कोई सपना टूट गया हो बेआवाज़।
अपनों की भीड़ में हैं तन्हा हर दम,
अपने ही घर में अजनबी से हम।
अदिति जैन
क्वालीफायर राउंड
बोलती कलम
अल्फ़ाज़ ए सुकून