अजनबी अपने ही घर में

अजनबी अपने ही घर में,
खोया सा मन, राहों में भटके।
दीवारें चुप, साये ठहरे,
यादें पुरानी, अब सपनों में थके।

कभी हंसी गूंजी, आंगन में,
बच्चों के कदम, माँ की लोरी।
अब सन्नाटा, बस गूंजता है,
खालीपन की एक उदास चोरी।

खिड़की से झांकता, बाहर का मेला,
पर दिल में कहीं, बस्ती है वीरान।
अपनों की बातें, अब धुंधली सी,
खुद से ही बेगाना, ये अनघट संसार।

कभी लगता था अपना आशियाना सबसे प्यारा।
हर कोने में बसता था, अपनापन सारा।
अब हर कदम पर, मन में रहता अनजान सा डर।
कौन हूँ मैं, ये सवाल करता हरपल बेकरार।

दरवाजे बंद, कमरों में ताले जड़े हुए,
फिर भी खुलता, बार-बार मन का वो कोना।
शायद कहीं, छुपा है मुझमें ही वो,
जो ढूंढता खुद में ही अपना आशियाना।

हो गया है मुकुल अजनबी अपने ही घर में,
फिर भी मन में उम्मीद की एक किरण सी जगी।
शायद लौट आए, वो पुराने बचपन के दिन
ज़ब आँगन में अपनों के मध्य हँसता था मैं।

लेखक- मुकुल तिवारी “अल्हड़”

प्रतियोगिता – बोलती कलम
क्वालीफायर राउंड
विषय – “अजनबी अपने ही घर में ”

अल्फाज़-ए-सुकून

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