प्रतियोगिता- आईने की बात
” ख़ुद का हूं मैं आईना ”
जब-जब मैं ख़ुद को देखा करती
ख़ुद से ही बातें किया करती ।
ख़ुद ही बन जाती ख़ुद का आईना
जब ज़िंदगी मुझसे दगा करती ।।
कह देती हूं दिल की सारी बात
जब बिगड़ जाते जीवन के सारे हालात
स्वयं को निहारती स्वयं को संवारती
गुज़ार देती यूं ही दिन और रात ।।
कभी हो जाती ख़ुद से ही ख़फ़ा
कभी गले लगाती करती ख़ुद से वफ़ा
कुछ भूल जाने का बहाना ढूंढती
कुछ दे जाती सिख दिल की सदा ।।
हम भी डोरी संभाले बैठे हैं ख़ुद का
जब ना समझे तो दर्पण दिखा जाती सच का
फिर बंधती ख़ुद से ख़ुद की डोरी
और उड़ जाती फिर पतंग मन का ।।
कैसी वफा है आईना तेरा ?
चेहरा तो क्या भावना पढ़ जाते मेरा
शुक्रिया कहूं या कहूं धन्यवाद
बस ऐसा ही रिश्ता रहे तेरा मेरा ।।
सुमन लता ✍️
अल्फाज़ -e-सुकून