आईने से बात
आईने में झाँका तो खुद से सवाल किया,
“क्या अब भी वही हूँ, जो कल था जिया?”
चेहरे पर हँसी, पर आँखों में शाम है,
कहीं तो दिल में भीगी हुई कोई बात थाम है।
“क्यों थक गए हो?”, आईना बोला चुपके से,
“खुद से भागते हो क्यों हर सुबह के साये से?”
मैं बोला — “रास्ते बहुत थे, पर मंज़िल न मिली,
हर मोड़ पर मुस्कान थी, पर सच्ची ख़ुशी कहीं गुम सी मिली।”
आईना हँसा — “तू अब भी है वही,
बस थोड़ा टूटा, थोड़ा चुप, पर अंदर से सजीव वही।”
“चल, खुद से फिर रिश्ता जोड़,
जो बीत गया, उस पर न कर ज़्यादा ज़ोर।”
“तेरा सच, तेरी रूह, तेरी हर पहचान
अब भी है ज़िंदा, तू खुद है अपनी जान।”
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दो पंक्तियाँ समापन में:
आईना टूटा नहीं, बस थक गया था सवालों से,
अब जवाब भी मैं हूँ — और रास्ता भी खुदा के खयालों से।