अनहोनी , एक अंदेशा
– प्रशांत कुमार शाह
ना ज़िंदगी का कुछ पता है,
ना अब किसी से कोई ख़ता है।
जो होना है वो होगा ही अब,
बस देखा जाएगा तब का तब।
हर अनहोनी का अंदेशा होता है,
इसके बाद इंसान ख़ूब रोता है।
पर इस पर अब ज़ोर किसका है,
ये तो रब की महज़ इच्छा है।
ग़लत हो सब अनहोनी कह देते हैं,
बुराई को अपने अंदर सह देते हैं।
शायद इसलिए सबका वजूद मिट रहा,
प्यार भी आजकल ख़ुद में ही सिमट रहा।
जब तलक ज़िंदगी है, अनहोनी रहेगी,
इंसान मजबूर है, इसे चुपचाप सहेगा।
पर कभी-कभार अनहोनी रास्ता देती है,
कौन अपना, कौन पराया ये बताती है।
इस बात पर अब क्या मलाल करना,
क़िस्मत में लिखे दुख पर क्या सवाल करना।
कुछ हालात तो कर्म से निर्धारित होते हैं,
हम वही काटते हैं जो ज़िंदगी में बोते हैं।
हर ग़म और दर्द में अनहोनी हो जाती है,
कभी-कभी तो अपना सब कुछ खो जाता है।
फिर भी जीवन तो व्यतीत करना होगा,
जितने के लिए अब तो लड़ना होगा।
ख़ैर, अनहोनी की बात पर डरना नहीं,
आए मुसीबत गर कभी, भागना नहीं।
“शाह” भी है एक कमाल का इंसान,
जो अनहोनी को मानता है एक वरदान।
प्रशांत कुमार शाह
सेमीफाइनल ( राउंड फॉर )
अल्फ़ाज़ ए सुकून