अनहोनी, एक अंदेशा

जब हवा में अजीब सी गंध हो,
और समय ठहरा सा लगे,
तब मन में उठता है एक प्रश्न,
क्या अनहोनी दस्तक दे रही है?

पर क्या हर अनहोनी पहले से चेताती?
या फिर वह अचानक से आ जाती!
निर्दयी, अचंभित कर देने वाली,
जैसे बिजली गिरती है साफ़ आसमान पर।

वातावरण में सहसा पक्षियों का शोर बढ़ जाता है,
आसमान में सूरज की किरणें धुंधला जाती हैं,
नदी की शांत धार में गहराइयां बन जाती हैं
जिन्हें हम नजरअंदाज कर रहे होते है
वही अनहोनी की आहट बयां कर रहे होते हैं
एक अनकहा संकेत भेजता है जग,
जैसे कुछ अनजाना आने को है अब!

अंदेशा, कभी स्पष्ट, कभी धुंधला होता
कभी मात्र एक भावना, एक शंका होता
पर जब-ज़ब अनहोनी घटती है,
सब अंदेशे पीछे छूट जाते हैं।

कभी यह मन का भ्रम लगता,
कभी यह सच की आहट बनता,
पर जब अनहोनी सामने आती है,
तो हर शंका यथार्थ में बदल जाती।

भाग्य के खेल अनदेखे होते हैं,
कभी इशारा, कभी धोखा देते हैं,
अनहोनी जो चुपके से आए,
वह मन को सबसे गहरी चोट दे जाये

सोचो तो, क्या अंदेशा रक्षा करता है,
या फिर डर की परछाई बन जाता है?
क्योंकि जब अनहोनी घटती है जीवन में,
सब कुछ क्षण भर में तहस नहस हो जाता है!!

विषय – अनहोनी, एक अंदेशा
राउंड – चतुर्थ (4th)
लेखक- मुकुल तिवारी “अल्हड़”

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